Monday 16 September 2013

Deterrent Therapy


Shri. Nagendar Sharma, in Hindustan Times of 13th Sept 2013, has written a small but good piece on the verdict in the Delhi gang-rape case. He writes that the country has some isolated islands of dissent in the general euphoria over the death penalty awarded to the convicts of the case. We have a class that is opposed to the death sentence as a matter of principle. They see the tendency to award death penalty as a way of looking for quick-fix solutions. It serves more to pacify the public anger instead of acting as deterrent. The safety and empowerment of women cannot be achieved by these fast food means, they argue. To an extent, the argument does make sense.

Veteran Human Rights Lawyer ND Panchouli has advocated for keeping the convicts in jail throughout their lives. In the same vein, he has also made a somewhat funny argument. “The prosecution repeatedly stressed that the juvenile was the most brutal among all the accused. Then how can it ever be justified that he will remain alive and four others will hang?”

Supreme Court lawyer Kamini Jaiswal has another argument. "I have no problem with the court holding the accused guilty, but I fail to understand why only the poor get death sentence in India? Is there a single case of a rich person being hanged?" she asked. Another lawyer, Smt. Karuna Nandy, on the other hand gave a much more sensible reaction. “Eliminating these men will not eliminate the culture of rape,” she said. Former Delhi high court chief justice Rajinder Sachar is also “not sure whether the death sentence acts as a deterrent against heinous crimes.”

 Reaction of the Asian Centre for Human Rights said that the death penalty could be counter-productive since the possibility of victims being murdered by criminals in order to destroy evidence must not be overlooked.

On going through the reactions, one wonders whether it’s the lawyers who are the weakest of all in logic and arguments. N D Panchouli’s reaction, for example, makes a mockery of the process of law-making. It has been said time and again, particularly in reference to this case, that the juvenile has got a very very lenient sentence, purely because of the weakness of law. In fact, one of the fallouts of this case is that the laws dealing with juvenile crimes are being revisited. If Shri. Panchouli wants to put weakness of one law as the strength of the other one, he should lawfully be outlawed. There seems nothing that one can do about it.

Similar is the case of Smt. Jaiswal. Instead of thinking of the effectiveness of the law, she is worried about the starting point. What she should have done instead is to bring similar cases where rich people are involved, before the judicial system by means of PIL or any other means she thinks right. One wonders what she meant by that reaction. If law has failed to convict a rich criminal, should it fail in case of one poor criminal also, to maintain equity? Its people like these that have made a nonsense of not only themselves but also of the cause they have taken up. I think the cause will be served better if these ‘lawyers’ keep quiet than make a fool of themselves and make more harm to the serious issue of Human Rights.

Ms. Nandy’s comments are, in contrast, serious; and so are those of Shri. Sachar. They both are right. The sentence will not serve the deterrent the society is looking at. But the reason lies elsewhere. I think the single most important reason for the failure of law, the legal process and its ability to act as a deterrent is the extremely low rate of conviction. And it’s not the police to be blamed in this case; make no mistake about it. The law, as a person, should also accept its share of the blame. No one is complete in the human world. But the law expects that the police should be complete when they put up a case in the court. The onus of proof and the extent of need of proof are one of the reasons for this low conviction rate. Somebody has said in some other reference that in human world, if something can be misused, rest assured it will be misused. Somebody or the other will misuse it. On the same lines probably, I feel many times the law is making for its own failure. The aim of judiciary is no innocent should be punished, though ten criminals go scot-free in the process. We can safely presume that on an average, ten out of eleven criminals are being let free.

Kautilya, in his Arthsastra, has pointed out before two and a half millennia, that the crimes reduce not when the punishments are harsh, but when the rate of convictions and punishments being awarded is high. If society has a feeling that no crime will be covered for long enough and no criminal will be spared, it’s this feel that acts as the deterrent. With the kind of conviction rate that we have, no punishment can ever act as a deterrent. So sporadic convictions and jocular comments is what we are in for, in the foreseeable future also. Or shall we pray for the Jaiswals and Panchoulis among us by saying “Oh Lord, please forgive them for they know not what they are talking. Amen”

Wednesday 28 August 2013

देश- आपका और मेरा
आदरणीय श्री. अमिताभ बच्चनजी,
सविनय प्रणाम. सबसे पहले आपको इस तरह, बिना किसी परिचय और जानकारीके, और वह भी ऐसे किसी सार्वजनिक मंच पर लिखने के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ. ऐसे अनवांछित और अनामंत्रित लिखना मुझे भी बड़ा अजीब लग रहा है. लेकिन आज अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ. (ऐसा होता है कभी कभी. ‘किंतु पाऊँगा नहीं कर आज अपने पर नियंत्रण; तीरपर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरोंमें निमंत्रण’. आपको तो जबानी याद होगा.) इसीलिये पहले ही आपसे क्षमायाचना कर रहा हूँ. कृपया मुझे क्षमा करें.

सर, आपका एक वीडियो आजकल बारबार देखने में आ रहा है. अबतक मैं उसे करीब आधा दर्जन बार तो देखही चुका हूँ. करीब करीब सारे चेनलोंपर आजकल विज्ञापनोंके बीच अचानक यह वीडियो आ जाता है. एक पल के लिए पहली बार तो मुझे यह एक नया विज्ञापन ही लगा. पर बादमें समझा, यह वह नहीं है. मैं उस वीडियो की बात कर रहा हूँ, जिसमें आप और श्री. शंकर महादेवन अपने अपने तरीके से मेरा देश रो रहा है कह रहे है. जी सर, मैं उस वीडियो की बात कर रहा हूँ.

वाह वाह सर, क्या वीडियो बनाया है! आपकी आवाज़ और शंकरजी का गाना, दोनोंही बिलकुल लाज़वाब है. और क्यों न हो? आप दोनों ही आजके ज़माने के अपने अपने क्षेत्र के नायाब हीरे जो हो! आप बीते हुए शतक में भी थे और आपको शताब्दी के महान अभिनेताके खिताब से नवाज़ाभी गया. शंकरजी थोड़ी देर से रोशन हुए, लेकिन ऐसे हुए कि सुनने-देखने वालों की आँखे चकाचौंध हो गयी. ऐसे दो महान कलाकार, ऐसी दो महान हस्तियाँ जब एकसाथ किसी विज्ञाप क्षमा किजीये वीडियो में आये, तो यह असर तो होना ही था. बड़ा आकर्षक वीडियो बना है, मानना पडेगा.

पर सर, आप के साथ इतने साल बिताने के बावजूद भी, हम बिलकुल गधे के गधे ही रह गए. आप को इस बात का बुरा लगा हो तो कृपया हमें माफ़ कर दीजिये. पर क्या करें, आखिर सच तो सच है. अब उम्र तक बीतने को आयी, फिर भी गँवार, नासमझ और अनाडी ही रह गया मैं. मुझे भी बड़ा दुःख होता है, सर, इस बातका. लेकिन हमारे बसमें कोई इलाज भी तो नहीं, इस गधाई का! (माफ़ कीजिये सर, लेकिन गधा से भाववाचक नाम क्या बनता है? गधाई, गधापन, गधिता या इन्हें छोड़, कुछ और? जो भी होता हो सर, आप भावार्थ समझ लीजिये.)

हाँ, तो मैं बात कर रहा था अपनी नासमझी की. सर, यह पूरा वीडियो इतनी बार देखने के बावजूद, एक बात मैं समझ नहीं पाया. आप इस वीडियो में आपके किसी देश के रोने की बात कर रहे थे. यह कौनसा देश है सर, जो रो रहा है? योरप का कोई देश या अमेरिका होगा शायद. सर, उन देशोंने ऐसी जिन्दगी बनायी है अपने लोगों की, कि उन्हें कभी ऐसी आपदा-विपदा नहीं झेलनी पड़ती. अब कोई संकट अचानक आ गया, तो छक्के छूट गये. ऐसाही होता है, गर आदत ना हो आसमानी- सुलतानी का सामना करनेकी. वह समझ ही नहीं पाते होंगे कि अब करें तो क्या करें? कैसे इस विपदा से बचे और आगे चले? इस मुश्किल समय से कैसे निबटें?

लेकिन सर, इस वीडियो में बीच में कभी कभी गढ़वालका नाम आता है? वह क्यों? गढ़वाल तो मेरे देश में है और वह तो रो नहीं रहा है. कहीं इस वीडियो के जरिये आप मेरे देशकी तो बात नहीं कर रहे हैं? आप जिसे ‘मेरा देश... मेरा देश’ कह रहे हैं, वह कहीं मेरा देश तो नहीं? अगर ऐसा है तो – मुझे माफ़ कीजिये सर, लेकिन - आप सरासर गलत हैं. मेरा देश नहीं रो रहा है. जो रो रहा है, वह रोयें सर, मेरा देश नहीं रोता. कोई भी, कैसा भी संकट हो, मेरा देश रोता नहीं. और यह शायद इसलिए सर, कि वह आपका देश कम और आपके बाबूजी का देश ज्यादा है. सर, मैंने सुना है आप अपने आपको आजकल ‘सीनियर बच्चन’ कहलाते है. एक तरहसे आप ठीक भी है. अभिषेक को अगर ‘ज्यूनियर बच्चन’ माना जाय, तो आप ‘सीनियर बच्चन’ हो ही गये. लेकिन मैं आजभी आपके बाबूजी को ‘सीनियर बच्चन’ और आपको सिर्फ ‘सपूत बच्चन’ मानता हूँ. अभिषेक को, जन्म की बात छोड़, किस लिहाज से ‘बच्चन’ माना जाय यह मैं अब तक तय नहीं कर पाया हूँ. हाँ, तो मेरे दिलके ‘सीनियर बच्चन’ने कभी लिखा था, कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था, भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था, ........... ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, कंकर, पत्थरोंको, एक अपनी शान्ति की कुटिया बनाना कब मना है? है अंधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है? और लिखा था नीड का निर्माण फिर फिर. शायद बाबूजी तूफ़ान समझते थे सर. इसलिये उन्हें बार बार गिरनेवाले घर को बार बार बनाने का मंत्र भी अवगत था. बाबूजी के रग रग में यह देश बसा था. इसीलिये वे हमसे इसी तरह की कविताएँ कहते गए और हम उन्हें अपने दिलों में बसाते गए. यह अँधेरे का दीपक मैंने स्कूल के दिनोंमें पढी थी. पर उसकी याद आजभी पक्की है. ऐसी कविताओंके साथ जो देश अपना बचपन बिताता हो, वह देश क्यों रोयेगा भला?

एक बात और भी है सरजी. आप महाराष्ट्र को कितना जानते हैं, मुझे नहीं पता. पर हमारे इस राज्य में एक जाति है पारधी. लोगोंसे लेके सरकार तक सबके मनमें यह बसा हुआ है, सर, कि यह जाति चोरों की है. इस जाति का जो भी आदमी हो, सिर्फ चोर ही हो सकता है. तो नतीजा यह है साहब, कि किसी भी गाँव में जब भी कोई चोरी-डकैती जैसी वारदात होती है, तो पुलीस इन्हें पकड ले जाती है और थर्ड डिग्री दे देती है. इनकी सुननेवाला तो कोई है ही नहीं. तो ये लोग पहले से जानते है कि उनकी यही किस्मत है. यही होता आया है और यही होता रहेगा. इसलिये ये लोग बचपनसे ही अपने बच्चों पे जुल्म, जबरदस्ती और अत्याचार करते है, ताकि बच्चा इन चीजोंका आदी हो जाये. बड़ा होनेके बाद अगर उसे यह सब सीखना पड़े तो शायद बहुत ज्यादा तकलीफ होगी. उससे तो यह बेहतर है कि पहले से उसे इसकी आदत करा दें. मेरे देश का भी कुछ ऐसा ही है साहबजी.

एक मिनटके लिये सोचिया सर, कि अगर मेरा देश ऐसी मुश्किलों पर रोने लगे, तो उसे कितनी बातों पे रोना पड़ेगा? वह किस-किस बात पर रोयेगा? आसमानी की बात तो समझमें आती है. उसपे किसी का कोई जोर नहीं चलता. बस तक़दीर की बात है. तक़दीर ने करवट ले ली और आप देखते देखते तबाह हो गए. आबाद से बरबाद तक का सफ़र पलमें हो जाता है सरजी. पर सुलतानी का? उसका क्या करें? कैसे समझें उसको? गर उसपर रोना पड़े तब तो हो गया. इसलिये हम लोगों को यह आदतसी है सर की ऐसी बातों पर रोया नहीं जाता. मेरा देश यह सीख गया है.

सुलतानी कि बातही कुछ ऐसी है सर, कि हम रोयें तो किस किस पर? एक राज्य का मुख्यमंत्री साम्प्रदायिक दंगो को बढ़ावा दे रहा है इसपर रोयें या देशका प्रधानमंत्री खुद अपनी राजधानी में हुए दंगों को जायज ठहरा रहा है इसपर? उस क्रीडादेवता पर रोये जो करोड़ों रुपया कमाने के बावजूद, मुफ्त में मिली फेरारी कार पर आयात कर माफ़ करवाने की कोशिशें करें या फिर उस नेता पर, जो यातायात के नियम तोड़ने के लिये गाडी रोकनेवाले पुलिसवाले को विधान भवन में ही मारपीट करे? क्या हमें सरकार पर रोना चाहिए या विपक्ष पर जो जानकारी का अधिकार (राईट टू इनफार्मेशन) क़ानून से बच निकलने से लेके गुनहगारों के लोकसभा-विधानसभा सदस्यत्व बचाने तक सभी गलत चीजों में एकजुट है? पाकिस्तान से सख्ती से पेश ना आने के लिए सरकार पर रोये या अपनी सरकार के दौरान बांगला देशसे कुछ न कह सकनेवाले विपक्ष पर? या फिर रिश्वत लेनेवाले मंत्रियों और पार्टी अध्यक्षों पर रोये या तरक्की के लिए करोड़ों रुपयों कि रिश्वत देने पे आमादा रेल बोर्ड सदस्योंपर? और फिर रोने के लिये, अपनी गाडीके नीचे फूटपाथ पर सोते लोगोंको कुचलनेवाले और एके४७ रायफल जैसे डरावने और खतरनाक हथियार खरीदनेवाले अभिनेताओंके बीच चुनाव करना भी तो काफी मुश्किल साबित होगा. औरों की बात तो मैं नहीं जानता साहबजी, पर मुझे तो यह भी समझमें नहीं आता कि किसपे रोयें- उस नेता पे जो रोज एक करोड़ कमाता है, या उस अभिनेता पे जो किसी ज्ञानकुम्भ के हर एपिसोड के संचान का एक-एक करोड़ लेता है. और यह ख़ास करके इसलिये, सर, कि यें दोनों मेरे उसी देश से है जिसकी करीब आधी आबादी आज भी यकीन के साथ नहीं कह सकती कि उन्हें रोज दो वक्त पूरा खाना और पीने का शुद्ध पानी नसीब होता रहेगा. किस किस बात पे और किस किस शख्स पे रोये मेरा देश, सरजी?

माफ़ करना सर! भावनाओं के बहकावे में आने से एक गलती हो गयी. कुछ समय के लिए मैं यह भूल ही गया कि हमारा देश अब स्वतंत्र है. वह कोई भी निर्णय करने के लिए सक्षम है. उसे किसी से कुछ पूछने की या किसी से इजाजत लेने की जरूरत ही नहीं. चाहे तो वह उस बलात्कार पर रोये जो देशके किसी भी शहर में किसी भी वक्त और किसी भी लड़की के साथ हो सकता है या उस भ्रष्टाचार पे रोये जो हर गाँव, हर कस्बे में हर घड़ी होता ही रहता है. चाहे रो पड़े उस सरकार पर जो एक गैर-कानूनी मस्जिद की दीवार गिराने का इल्जाम लगाकर माफियाओंके पीछे पड़े अपने अफसरको सस्पेंड करे या उस सरकार पर जो पार्टीकी  सुपर सरकार के जमाईराजा का कच्चा चिट्ठा खोलनेवाले अफसरको घर भेज दे. उसे अपने मन से चुनाव करने का पूरा पूरा हक़ है. वह क्यों किसी से पूछते फिरे? चाहे जिसपे रोये, चाहे जब रोये और चाहे जितना रोये. कौन पूछता है?

सरजी, मेरा यह देश पुराने जमाने से हाथियों के लिए मशहूर है. मैनें बचपन से सुना था कि हाथी के दो तरह के दांत होते है, एक दिखानेके और एक खानेके. इतने सालों बाद अब कहीं जाके समझ पा रहा हूँ कि मेरे देश की यह शोहरत किस कारण से है. यहाँ तो गली गली में हाथी ही हाथी है, जिनके दिखावे के दांत अलग है और खाने के अलग. और दांत ही क्यों, उनकी तो हर चीज़ दोहरी है- एक दिखावे की और एक इस्तेमाल की. और दिन-ब-दिन इन हाथियों की तादातभी बढ़तीही जा रही है. एक और जानवर था जो मेरे इस देशमें ही पाया जाता था- गेंडा. अब वह लुप्तप्राय हो चला है क्योंकी उसकी शिकार बहुत होती है. मैं अपने पागलपन की वजह से समझता था कि उसकी शिकार उसके सींग के लिए होती है. क्या पता था कि मेरे देश में उसकी खाल की भी बहुत माँग है. सार्वजनिक जीवन में रहनेवाले हर किसी को गेंडेकी खाल चाहिए. बेचारा गरीब जानवर! समझ नहीं पाया उसके पास क्या खूबी है और नासमझी का शिकार हो गया.

मैं जानता हूँ सर, आप क्या कहनेवाले है. अपने सहजसुंदर अभिनयसिद्ध शैलीमें आप कहेंगे, महानुभाव, उस वीडियो में, जिसकी बात आप कर रहे है, मैं गढ़वाल की और उसपर टूट पडी आसमानी आफत की बात कर रहा हूँ. और जहाँ मैंने आसमानी क़हर की बात की तो आपने मुझे सारे मनुष्यनिर्मित आपत्तियोंका पाठ पढ़ा दिया. समझ क्यों नहीं रहे है आप? सर, मैं बिलकुल मानता हूँ आपकी बात को. आप गढ़वालकी जिस विपत्ती के बारे में कह रहे है, वह सामने से पूरी पूरी आसमानी ही दिखाई देती है. लेकिन क्या जो दीख रहा है वही सच है? क्या आप अपने दिलको साक्षी मानके कह पायेंगे कि यह पूरी तरह से प्राकृतिक आपत्ती है और इसमें इंसानों का कोई दोष नहीं? क्या इस आपत्ती को हमने बुलावा नहीं भेजा है? क्या इसे हम टाल नहीं सकते थे? और क्या हम आजभी इससे कुछ सीख पायें है?

नहीं सर, मैं उस धारी देवी के मंदिरकी बात नहीं कह रहा हूँ. वह किसीकी श्रद्धा हो सकती है और किसीकी नहीं. आपकी सोचके दायरोंमें मैं शायद उसे सिद्ध न कर पाऊँ. इसलिये बेहतर यही होगा कि कुछ न कहूँ. लेकिन यात्रीनिवास (होटल), खानपानगृह (रेस्तराँ), मकान आदि बनाने के लिए कितनी जमीन का गलत तरीके से इस्तेमाल किया गया यह तो आपभी जानते हैं और मैं भी जानता हूँ. और गलत तरीकेसे मेरा मतलब अवैध तरीकोंसे या नियमोंको ताकपर रखकर नहीं है. हमारे देशमें इसे गलत नहीं माना जाता. सर, सारी जिन्दगी जिन्होंने फिल्मोंके शूटिंगके वक्तको छोड़ कभीभी जमीन न देखी हो, वह भी हमारे देश में किसान होनेका प्रमाणपत्र ला सकते हैं; आप तो भली भाँती जानते हैं. तो वह नहीं कह रहा हूँ मैं. गलत तरीकेसे से मेरा मतलब है  आजके फायदेके लिए कल की बली चढ़ाके, परिणामों की तरफ ध्यान दिए बिना. आज आप पैसा बटोर सकते है, तो बटोर लीजिये, बाद का बाद में देखा जाएगा. बादमें तो सिर्फ बाढ़ आ सकती है; और तब देखनेके लिए ना नजारा होता है न वक़्त. पर यह सब कौन सोचेगा सर! किसी सुधबुध है सोचते बैठने की? नतीजा यह है कि हमारी आसमानी भी सौ में निन्यानवे बार सुलतानी ही होती है. बस यहीं वजह है कि मैंने आज सुलतानी पर ध्यान दिया है, आसमानी पर नहीं. क्यों कि यह आफत आसमानी थी ही नहीं. यह तो अपने पैर पे कुल्हाड़ी मारनीवाली बात थी.

सर, मैंने पहले ही कहा, कि आज रोक नहीं पाया अपने आपको, इसलिये आपको कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया. दर असल आपका वह वीडियो तो एक कारण मात्र था. मैं ही अपना आपा खो बैठा. मेरी इस धृष्टता से या किसी कथन से अगर आपको ठेस पहुँची हो या बुरा लगा हो तो मैं माफी तलब करता हूँ. सर, हमारे महाराष्ट्र के एक कवी है, चंद्रकांत देवताले. हिन्दी में बड़ी अच्छी कविताएँ लिखते है. उनकी एक कविता मैंने एक बार भारत भवन में पढी थी. लिखते है,
            मैं गलती करता हूँ और माफी मांगता हूँ.
            लेकिन उसपर मैं फिर गलती करता हूँ और फिर माफी मांगता हूँ.
            और इसके बाद मैं गलती करता हूँ और माफी मांग लेता हूँ.
            मुझे जिन्दगी का और कोई रास्ता नज़र नहीं आता....
मेरा भी कुछ ऐसाही है सर. इसलिये मै आपसे भी माफी अर्ज करता हूँ. कृपया मुझे क्षमा करे.

भवदीय,

Tuesday 23 July 2013

छत्रपती  शिवाजी  आणि  त्यांचे  गुरू
छत्रपती शिवाजी महाराज हे महाराष्ट्राचे दैवताच आहे. छत्रपती महाराष्ट्राचे आणि महाराष्ट्र छत्रपतींचा असे हे भक्कम अद्वैत आहे. त्यामुळे सामान्यपणे महाराष्ट्रात छत्रपती शिवाजी हा वादविषय होऊच शकत नाही ही वस्तुस्थिती आहे. पण बहुधा हीच गोष्ट कुठेतरी या सगळ्या विषयाला नजर लागायला कारणीभूत झाली असे दिसते. त्यामुळे 'छत्रपती नाहीत तर नाहीत, त्यांच्या गुरूंबद्दल भांडू' यावर एकमत झाले असावे अशा पद्धतीने वादंग सुरु झालेले दिसते. आजचे स्वार्थ आणि जातीय राजकारणाच्या गरजा यांच्यामुळे सुरु झालेले हे वादंग एकीकडून अस्थानी तर दुसरीकडून अडाणी आहे हे मात्र उघड दिसते आहे.

एक राजकारणी, एक राजा आणि एक नेता या सर्व अंगानी शिवाजी भोसले या पुरुषाचे मूल्यमापन अनेक जणांनी आपापल्या पद्धतीप्रमाणे आणि मगदुराप्रमाणे केले आहे. या सर्वांच्या प्रतिपादनात अनेक ठिकाणी वेगळेपणा आहे आणि अनेक तपशिलाच्या जागा प्रत्येकाने वेगवेगळ्या प्रकारे दिल्या आहेत. कल्याणच्या सुभेदाराच्या सुनेबद्दलचा प्रसंग घडला की नाही यावर दुमत आहे. शेलारमामा हा संपूर्णपणे काल्पनिक आहे यावर आता सामान्यपणे एकमत आहे. पण तरीही या मामाने मामा बनवलेले लोक अजूनही आहेत. अशा अनेक गोष्टींची एक जंत्री देता ये. पण प्रवृती म्हणून शिवाजी या व्यक्तीबद्दल मात्र फार मतभेद नाहीत ही गोष्ट लक्षात घ्यायला हवी. वर दिलेले उदाहरणाच पुन्हा घ्यायचे तर कल्याणच्या सुभेदाराच्या सुनेबद्दलचा प्रसंग घडला की नाही यावर दुमत आहे; पण असा प्रसंग छत्रपतीच्या आयुष्यात जर आला असता तर तो याच दिशेने गेला असता यावर सामान्यपणे एकमत आहे. असेच एकमत शिवाजी राजांचे कर्तृत्व युगप्रवर्तक होते याही गोष्टीवर आहे. शिवाजीवर अनेक इतिहासकारांनी आणि विचारवंत लेखकांनी लेहिले आहे आणि त्याच्या जीवनाचे अनेक पैलू उलगडून दाखवले आहेत. सर्व लेखकांची नावे देत बसता त्यातले महत्वाचे मुद्दे संक्षेपाने पाहता येतील. मुद्दाम ही गोष्ट पुन्हा सांगितली पाहिजे की या सर्व विवेचनात माझा वाटा अतिशय क्षुल्लक आहे. जागेच्या सोयीसाठी सर्व संदर्भ आणि नावे दिलेली नाहीत.

शिवाजीच्या आयुष्याचा अतिशय महत्वाचा घटक त्याचे नियोजन हा आहे. युद्ध, लूट, तह, स्वाऱ्या हे सारे तर नियोजनबद्ध आहेच आहे. पण बऱ्याच ठिकाणी माघार घेणेही नियोजनबद्ध असल्याचे दिसते. या नियोजनबद्धतेची सुरवात स्वराज्याच्या स्थापनेपासूनच झालेली दिसतेपुण्याजवळचा, विजापूरच्या वाटेवरचा, लक्ष ठेवायला आणि मदत पोचवायला सोपा आणि किल्लेदार ओळखीचा असल्याने जरा सहज असा पुरंधर किल्ला ताब्यात घेणे, त्याचा अतिशय योग्य वापर करून आदिलशाही फौजांना टक्कर देणे, सिंहगड ताब्यात घेणे आणि मग प्रकरण फार वाढू  देण्यासाठी सिंहगड परत करणे हे सारे कसे सूत्रबद्ध दिसते. दीर्घकालीन योजनेच्या आधारे असे नियोजन ही शिवाजीपर्यंत हिंदू राजांची पद्धत नाही. अकराव्या शतकातल्या सिंधच्या राजा दाहीरपासून सोळाव्या शतकातल्या विजयनगरच्या रामराजापर्यंत कोणीही याला अपवाद नाही. हे सर्व राजे मुख्यतः प्रतिक्रिया देणारे आहेत, पश्चात बुद्धीचे धनी आहेत. आपण होउन पुढाकार घेणे, शत्रूंबद्दलचेअनुभव जमेला धरून त्याचे नियोजन करणे अशा काही  गोष्टी गोष्टी त्यांच्या आसपासही येत नाहीत. शिवाजी या बाबतीत पूर्णपणे स्वतंत्र आणि  परंपरेपेक्षा वेगळा आहे. त्याला कुणी पूर्वसूरी नाहीच आहे. हीच गोष्ट दगा, धोका या बाबतीत झाली आहे. दगे द्यायचे, तह मोडायचे आणि  आक्रमण करायचे ते फक्त शत्रूने; आपण दगा खावा, तो देणाऱ्या शत्रूबद्दल वांझ चीड मनात ठेवावी आणि दग्याने केलेल्या आक्रमणातून शिल्लक राहिलोच तर पुन्हा पुढच्या वेळी दगा खावा या मार्गाने भारतीय राजांची वाटचाल शिवाजी आधी शेकडो वर्षे चालली होती. साधारण रीत अशी की एतद्देशीय राजे चैन-विलासात मग्न असत. शत्रू त्यांच्यावर चाल करून येणार, तो शे-पन्नास मैल आत आल्यावर हे लोक जागे होणार. त्यामुळे लढाई यांच्याच प्रदेशात. कोणीही जिंको आणि कोणीही हारो, यांचा प्रदेश तर बरबाद होणारच. आपण आक्रमण करणे वगैरे तर फारच लांबच्या गोष्टी. त्यामुळे लढाईत विजय मिळाला तरी नुकसान आहेच. म्हणजे विजय मिळाला तर कमजोर होऊन जिवंत राहायचे पण पराभव झाला तर समूळ नाश हीच भारतीय राजांची तोपर्यंतची पद्धत होती. पण शिवाजीपासून शत्रूंनी दगा खाण्याची सुरवात होते. शिवाजी दगा देतो ते शत्रूला बेसावध पकडायला. दगा हा शेवट नव्हे, ती सुरवात. शत्रू भानावर येण्याच्या आत शिवाजीने आक्रमण करून नवीन प्रदेश राज्याला जोडलेला असायचा. त्यामुळे शत्रूचा जोर खरेच जास्त असेल तर या नव्याने जिंकलेल्या प्रदेशातला काही भाग परत देऊन तह होतो. अफझलखानाच्या वधानंतर १८ दिवसात शिवाजीने वाई ते पन्हाळा हा पट्टा हस्तगत केला आणि जौहरला वाकुल्या दाखविल्यानंतर शाहिस्तेखानाशी लढण्यावर लक्ष द्यायला पाहिजे म्हणून पन्हाळा किल्ला आदिलशाहीला देऊन त्यांच्याशी तह केला. आता हा असा सल्ला शिवाजी कुणाकडून घेणार? होतेच कोण अशा गोष्टी शिवाजीला शिकवायला

शिवाजीचे अद्वितीयत्व हा अनेक गोष्टींचा एक समुच्चय आहे. त्याचा स्वतःचा मृत्यू झाला १६८०मध्ये. संभाजीचा मृत्यू १६८९चा तर राजारामाचा १७००मध्ये. त्यामुळे १७०२-०३ची परिस्थिती कशी आहे पहा. शिवाजी-संभाजी-राजाराम मरण पावले होते, येसूबाई आणि संभाजीचा मुलगा शाहू मोगलांच्या कैदेत होते आणि महाराष्ट्रात ताराबाई आणि काही सरदार फक्त होते. पण याही परिस्थितीत कोणी शरण जाण्याचा फार गंभीरपणे विचार केल्याचे दिसत नाही. ज्याला जसे सुचेल तसा तो लढत होता. याच स्थितीला उद्देशून औरंगझेबाने त्याचे ते सुप्रसिद्ध उद्गार इथे गवताला भाले फुटतात असे दिसते काढले होते. हे सर्व लोक मिळेल तसे मिळेल तिथे कशासाठी लढत होते? शिवाजीच्या नावासाठी आणि रयतेच्या राज्यासाठी हेच या प्रश्नाचे उत्तर नाही काय?

वर केलेल्या चर्चेवरून राजा म्हणून शिवाजीकडे काही असामान्य गुणविशेष होते हे पुरेसे स्पष्ट झाले आहे. पण ज्या वादाच्या संदर्भात हा प्रश्न आपण उपस्थित करतो आहोत, त्याचाच संदर्भ पुढे चालवायचा तर फक्त हे गुणविशेष आणि शिवाजीचे असामान्यत्व दाखवून देणे पुरेसे नाही. त्यामुळेच इथे हेही स्पष्टपणे म्हणावे लागेल की या सर्व गुणांच्या क्षेत्रात, खुद्द शिवाजीचा पिता शहाजी किंवा त्याचे आजोबा मालोजी आणि लखुजी हेही त्याचे पूर्वसूरी ठरू शकत नाहीत. शहाजी हा शिवाजीची पार्श्वभूमी आहे हे उघडच दिसते. पण शिवाजी अशा पार्श्वभूमीवरही उठून दिसण्याइतका कर्तृत्ववान आहे हेही स्पष्ट आहे आणि शिवाजीची बरीचशी विचारप्रक्रिया ही त्याची स्वतःची आहे हेही मान्य करावे लागते.

आणि हे सर्व मान्य केल्यानंतरही मानवी जीवनाच्या सर्व मर्यादा शिवाजीलाही लागू आहेत हे विसरता येत नाही. अबिबी बिकिला, जेसी ओवेन्स, कार्ल लुईस आणि ह्युसेन बोल्ट हे जगातले त्यांच्यात्यांच्या काळातले सर्वोत्कृष्ट धावपटू होते यावर वाद असण्याचे काहीच कारण नाही. पण त्या अवस्थेत पोचण्याआधी त्यांना कुणीतरी हाताला धरून चालायला शिकवलेच होते हेही विसरू नये. आजचा सचिन तेंडूलकर आपोआप तयार झालेला नाही. तसेच शिवाजीला न्यायाच्या तत्कालीन कल्पना, राज्यकारभाराची अंगे, राजाच्या कामाच्या मर्यादा आणि राजाकडून अपेक्षा, समकालीन सामाजिक आणि राजकीय परिस्थिती या सर्वच गोष्टींबद्दल कुणीतरी सांगितले असेलच ना?

औरंगजेब दीर्घकाळ दक्षिणेचा मोगल सुभेदार असल्याने इथल्या परिस्थितीचा चांगला माहितगार होता. त्याच्या मते दक्षिणेत जमीन महसूल, न्याय आणि कज्जे-खटले या क्षेत्रात दादोजी कोंडदेव हा फार कर्तृत्ववान माणूस आहे. शिवाजीच्या सदरेवर सारे आयुष्य काढलेल्या या माणसाकडून शिवाजी काहीच शिकला नसेल असे मानायचे का? तसे मानले तर ते शिवाजीचे कर्तृत्व नव्हे, अपयश ठरेल याचे भान आपण असू द्यावे. आणि इतका अप्रत्यक्ष वळसा तरी कशाला घ्यायचा? १६६५ला मिर्झाराजे जयसिंग यांच्यासमोर शरणागती पत्करावी लागल्यावर शिवाजीला एकदा आग्र्याला जाऊन यावे लागले हा इतिहास आपण सर्व जण जाणतो. औरंगजेबाच्या कैदेतून सुटून आल्यानंतर लगेचचा काही काळ शिवाजीने स्वस्थ बसून काढला. त्याला मधल्या काळातल्या सर्व घटनांचे धागेदोरे जुळवून घ्यायचे होते. या मोकळ्या वेळात त्याने जमीन महसुलाच्या आणि कर वसुलीच्या आपल्या मनातल्या कल्पना मांडल्या आणि अंमलातही आणल्या. या महसुली सुधारणा आणि दादोजी कोंडदेवाच्या कारभारातले महसुली नियम आणि कायद्यांचे स्वरूप या दोन गोष्टीत फारसा फरक दिसतच नाही. दादोजीच्याच कल्पना परिस्थितीनुरूप किंचित सुधारून शिवाजीने अंमलात आणल्या हे अगदी स्पष्ट दिसते. शिवाजी सदरेवर बसून दादोजीकडून बरेच काही शिकला ही गोष्ट अगदी उघड स्पष्ट दिसते.

महसुलाचे कायदे, नियम आणि दर यांचे हे उदाहरण यासाठी दिले की या गोष्टीवर कागदोपत्री पुरावा दाखवता येतो. पण ज्याला स्पष्ट नोंदीचा प्रत्यक्ष पुरावा एका मर्यादेतच देता येईल अशा आणखी अनेक गोष्टी सांगता येतील. शिवाजीला लिहिणे-वाचणे शिकवायला शिक्षक नेमले होते अशी नोंद दाखवता येते. पण शिवाजी त्यांच्याकडून नेमके काय काय शिकला आणि लिहिणे-वाचणे त्याला कितपत जमत होते हे प्रत्यक्ष पुराव्याने कसे दाखवणार? तीच गोष्ट युद्धकलेबद्दलची. या क्षेत्रातल्या शिवाजीच्या कर्तृत्वाची काही उदाहरणे फारतर दाखवता येतील. पण ती गोष्ट कुणाकडून आणि कशी शिवाजीने आत्मसात केली हे सिद्ध करायला काय मार्ग आहे? प्रत्यक्ष पुरावा सहजासहजी अशा व्यवहारांमध्ये मिळताच नाही.

या सर्व विचारात आणखी एक गोष्ट लक्षात ठेवावी लागेल. ज्या क्षेत्रात शिवाजीचे कार्य पुराव्याने सिद्ध आहे आणि जे प्रत्यक्ष आणि थेटपणे शिवाजीशी नेऊन भिडवता येते अशा गोष्टींमध्ये ही परिस्थिती आपल्याला दिसते. पण राजा म्हणून अनेक गोष्टींचे शिवाजीशी असे थेट नाते दाखवता येणार नाही. तिथे आपण काय करणार आहोत? लाल महालावर छापा घालण्याचा किंवा कार्तलबखानाला उंबरखिंडीत गाठण्याच्या योजनेचा  तपशील नेमका कुणी ठरवला हे कळणार तरी कसे? शिवाजीच्या नेतृत्वाचा आवाका आणि अनपेक्षित पण हमखास यश देणारे डाव टाकण्याचे त्याचे इतर ठिकाणाचे कौशल्य पाहूनच आपण निर्णय देणार ना? एका माणसाच्या असण्याने आणि नसण्याने परिस्थिती आणि परिणाम या गोष्टींवर जो फरक पडतो तोच त्या माणसाच्या दर्जाकडे बोट दाखवतो. शिवाजीच्या असण्याने इतिहासाच्या प्रवाहाची दिशाच बदलली गेली ही गोष्ट नाकारताच येत नाही. या परिणामाला कारणीभूत असणाऱ्या शिवाजी या माणसाचे मूल्यमापन काही प्रमाणात तरी परिणाम पाहूनच करावे लागते. जी गोष्ट राजकीय कर्तृत्वाच्या बाबतीत खरी आहे तीच इतर घटना आणि तपशील यांच्याही बाबतीत खरी आहे. महसुली व्यवस्था आणि कायदे यात दादोजी कोंडदेव शत्रूंनी दाद द्यावी इतक्या दर्जाचा तज्ञ होता. शिवाजीच्या व्यवस्थेत जर या गोष्टी तत्कालीन सत्तांच्या तुलनेत ढळढळीतपणे उठून दिसत असतील तर त्याचे श्रेय मोठ्या प्रमाणावर दादोजीकडे जायला पाहिजे हे सहज स्पष्ट असायला हवे.

मुद्दा इतकाच, की शिवाजीसारखा युगपुरुष या दर्जाचा माणूस जवळजवळ सर्वच क्षेत्रात असामान्य असतो. पूर्वसूरींपेक्षा त्याचे वेगळेपण हेच त्याला असामान्यत्व प्राप्त करून देते. पण या असामान्य मानवालाही इतर सर्वसामान्यांप्रमाने काही जडणघडणीच्या काळातून जावेच लागते. या त्याच्या घडणीत अनेकांचा वाटा असतोच असतो. त्यांच्यामुळेच हा असामान्य युगपुरुषठरला हे म्हणणे अतिशयोक्तीचे असेल तर त्यांचा या असामान्याच्या बनण्यात काहीच वाटा नाही, ते याचे गुरु किंवा शिक्षक नव्हेतच, हे म्हणणे करंट्या संकुचितपणाचे आहे. दत्तात्रेयांना २४ गुरु होते हेही खरे आणि दत्तात्रेय स्वयंभू होते हे ही खरे. अद्वितीय किंवा युगप्रवर्तक या जीवनात अनुभवाला येणाऱ्या गोष्टी आहेत. पण म्हणून त्यांचे अर्थ पूर्णपणे आहेचआणि नाहीच मुळीअशा दोन्ही टोकांना खेचण्यात आपण आपल्याच अडाणीपणाचे प्रदर्शन करत असतो हे लक्षात ठेवणे बरे. सत्य या दोन्ही टोकांच्या मध्ये कुठेतरी आहे. स्वतः शिवाजीला दादोजीच काय पण लाठी-तलवारीचे डाव शिकवणाऱ्यालाही गुरुचे स्थान द्यायला संकोच वाटला नसता. ज्याचे स्वतःचे कर्तृत्व वादातीत आहे त्याला या असल्या श्रेयाच्या वादाशी काहीच देणेघेणे नसते. कर्तृत्वशून्य, अडाणी आणि स्वार्थी मंडळीचा हा खेळ असतो. 'नाव शिवाजीचे आणि काम माझ्या तूप-पोळीचे' याशिवाय या वादाला वेगळे काही नाव देणे कठीण आहे.