देश- आपका और मेरा
आदरणीय श्री. अमिताभ बच्चनजी,
सविनय प्रणाम. सबसे पहले आपको इस तरह,
बिना किसी परिचय और जानकारीके, और वह भी ऐसे किसी
सार्वजनिक मंच पर लिखने के लिए आपसे क्षमा चाहता हूँ. ऐसे अनवांछित और अनामंत्रित
लिखना मुझे भी बड़ा अजीब लग रहा है. लेकिन आज अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ. (ऐसा
होता है कभी कभी. ‘किंतु
पाऊँगा नहीं कर आज अपने पर नियंत्रण; तीरपर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरोंमें निमंत्रण’. आपको तो जबानी
याद होगा.) इसीलिये पहले ही आपसे क्षमायाचना कर रहा हूँ. कृपया मुझे क्षमा करें.
सर, आपका एक वीडियो आजकल बारबार देखने
में आ रहा है. अबतक मैं उसे करीब आधा दर्जन बार तो देखही चुका हूँ. करीब करीब सारे
चेनलोंपर आजकल विज्ञापनोंके बीच अचानक यह वीडियो आ जाता है. एक पल के लिए पहली बार
तो मुझे यह एक नया विज्ञापन ही लगा. पर बादमें समझा, यह ‘वह’ नहीं है. मैं उस वीडियो की बात कर रहा हूँ, जिसमें आप और
श्री. शंकर महादेवन अपने अपने तरीके से ‘मेरा देश रो रहा
है’ कह रहे है. जी सर, मैं उस वीडियो की बात कर रहा हूँ.
वाह वाह सर, क्या वीडियो बनाया है! आपकी
आवाज़ और शंकरजी का गाना, दोनोंही बिलकुल लाज़वाब है. और क्यों न हो? आप दोनों ही
आजके ज़माने के अपने अपने क्षेत्र के नायाब हीरे जो हो! आप बीते हुए शतक में भी थे
और आपको ‘शताब्दी के महान अभिनेता’के खिताब से नवाज़ाभी
गया. शंकरजी थोड़ी देर से रोशन हुए, लेकिन ऐसे हुए कि सुनने-देखने वालों की आँखे
चकाचौंध हो गयी. ऐसे दो महान कलाकार, ऐसी दो महान हस्तियाँ जब एकसाथ किसी विज्ञाप – क्षमा किजीये – वीडियो में आये, तो यह असर तो होना ही था. बड़ा आकर्षक
वीडियो बना है, मानना पडेगा.
पर सर, आप के साथ इतने साल बिताने के
बावजूद भी, हम बिलकुल गधे के गधे ही रह गए. आप को इस बात का बुरा लगा हो तो कृपया
हमें माफ़ कर दीजिये. पर क्या करें, आखिर सच तो सच है. अब उम्र तक बीतने को आयी,
फिर भी गँवार, नासमझ और अनाडी ही रह गया मैं. मुझे भी बड़ा दुःख होता है, सर, इस
बातका. लेकिन हमारे बसमें कोई इलाज भी तो नहीं, इस गधाई का! (माफ़ कीजिये सर, लेकिन
‘गधा’ से भाववाचक नाम
क्या बनता है? गधाई, गधापन, गधिता या इन्हें छोड़, कुछ और? जो भी होता हो सर, आप
भावार्थ समझ लीजिये.)
हाँ, तो मैं बात कर रहा था अपनी नासमझी की. सर, यह पूरा वीडियो इतनी बार देखने के बावजूद, एक बात मैं समझ नहीं पाया. आप
इस वीडियो में आपके किसी देश के रोने की बात कर रहे थे. यह कौनसा देश है सर, जो रो
रहा है? योरप का कोई देश या अमेरिका होगा शायद. सर, उन देशोंने ऐसी जिन्दगी बनायी
है अपने लोगों की, कि उन्हें कभी ऐसी आपदा-विपदा नहीं झेलनी पड़ती. अब कोई संकट
अचानक आ गया, तो छक्के छूट गये. ऐसाही होता है, गर आदत ना हो आसमानी- सुलतानी का
सामना करनेकी. वह समझ ही नहीं पाते होंगे कि अब करें तो क्या करें? कैसे इस विपदा
से बचे और आगे चले? इस मुश्किल समय से कैसे निबटें?
लेकिन सर, इस वीडियो में बीच में कभी कभी
गढ़वालका नाम आता है? वह क्यों? गढ़वाल तो मेरे देश में है और वह तो रो नहीं रहा है.
कहीं इस वीडियो के जरिये आप मेरे देशकी तो बात नहीं कर रहे हैं? आप जिसे ‘मेरा
देश... मेरा देश’ कह रहे हैं, वह कहीं मेरा देश तो नहीं? अगर ऐसा है तो – मुझे माफ़
कीजिये सर, लेकिन - आप सरासर गलत हैं. मेरा देश नहीं रो रहा है. जो रो रहा है, वह
रोयें सर, मेरा देश नहीं रोता. कोई भी, कैसा भी संकट हो, मेरा देश रोता नहीं. और
यह शायद इसलिए सर, कि वह आपका देश कम और आपके बाबूजी का देश ज्यादा है. सर, मैंने
सुना है आप अपने आपको आजकल ‘सीनियर बच्चन’ कहलाते है. एक तरहसे आप ठीक भी है.
अभिषेक को अगर ‘ज्यूनियर बच्चन’ माना जाय, तो आप ‘सीनियर बच्चन’ हो ही गये. लेकिन
मैं आजभी आपके बाबूजी को ‘सीनियर बच्चन’ और आपको सिर्फ ‘सपूत बच्चन’ मानता हूँ.
अभिषेक को, जन्म की बात छोड़, किस लिहाज से ‘बच्चन’ माना जाय यह मैं अब तक तय नहीं
कर पाया हूँ. हाँ, तो मेरे दिलके ‘सीनियर बच्चन’ने कभी लिखा था, ‘कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था, भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को
तना था, ........... ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, कंकर, पत्थरोंको, एक अपनी शान्ति की
कुटिया बनाना कब मना है? है अंधेरी रात, पर दीवा जलाना कब मना है?’ और लिखा था ‘नीड का निर्माण फिर फिर’. शायद बाबूजी
तूफ़ान समझते थे सर. इसलिये उन्हें बार बार गिरनेवाले घर को बार बार बनाने का मंत्र
भी अवगत था. बाबूजी के रग रग में यह देश बसा था. इसीलिये वे हमसे इसी तरह की कविताएँ
कहते गए और हम उन्हें अपने दिलों में बसाते गए. यह ‘अँधेरे का दीपक’ मैंने स्कूल के दिनोंमें पढी थी. पर उसकी याद आजभी पक्की है. ऐसी कविताओंके
साथ जो देश अपना बचपन बिताता हो, वह देश क्यों रोयेगा भला?
एक बात और भी है सरजी. आप महाराष्ट्र को
कितना जानते हैं, मुझे नहीं पता. पर हमारे इस राज्य में एक जाति है ‘पारधी’. लोगोंसे लेके सरकार तक सबके मनमें यह बसा हुआ है, सर, कि
यह जाति चोरों की है. इस जाति का जो भी आदमी हो, सिर्फ चोर ही हो सकता है. तो
नतीजा यह है साहब, कि किसी भी गाँव में जब भी कोई चोरी-डकैती जैसी वारदात होती है,
तो पुलीस इन्हें पकड ले जाती है और ‘थर्ड डिग्री’ दे देती है. इनकी सुननेवाला तो कोई है ही नहीं. तो ये लोग पहले से जानते है
कि उनकी यही किस्मत है. यही होता आया है और यही होता रहेगा. इसलिये ये लोग बचपनसे
ही अपने बच्चों पे जुल्म, जबरदस्ती और अत्याचार करते है, ताकि बच्चा इन चीजोंका
आदी हो जाये. बड़ा होनेके बाद अगर उसे यह सब सीखना पड़े तो शायद बहुत ज्यादा तकलीफ होगी.
उससे तो यह बेहतर है कि पहले से उसे इसकी आदत करा दें. मेरे देश का भी कुछ ऐसा ही
है साहबजी.
एक मिनटके लिये सोचिया सर, कि अगर मेरा
देश ऐसी मुश्किलों पर रोने लगे, तो उसे कितनी बातों पे रोना पड़ेगा? वह किस-किस बात
पर रोयेगा? आसमानी की बात तो समझमें आती है. उसपे किसी का कोई जोर नहीं चलता. बस
तक़दीर की बात है. तक़दीर ने करवट ले ली और आप देखते देखते तबाह हो गए. आबाद से
बरबाद तक का सफ़र पलमें हो जाता है सरजी. पर सुलतानी का? उसका क्या करें? कैसे
समझें उसको? गर उसपर रोना पड़े तब तो हो गया. इसलिये हम लोगों को यह आदतसी है सर की
ऐसी बातों पर रोया नहीं जाता. मेरा देश यह सीख गया है.
सुलतानी कि बातही कुछ ऐसी है सर, कि हम
रोयें तो किस किस पर? एक राज्य का मुख्यमंत्री साम्प्रदायिक दंगो को बढ़ावा दे रहा
है इसपर रोयें या देशका प्रधानमंत्री खुद अपनी राजधानी में हुए दंगों को जायज ठहरा
रहा है इसपर? उस क्रीडादेवता पर रोये जो करोड़ों रुपया कमाने के बावजूद, मुफ्त में
मिली फेरारी कार पर आयात कर माफ़ करवाने की कोशिशें करें या फिर उस नेता पर, जो
यातायात के नियम तोड़ने के लिये गाडी रोकनेवाले पुलिसवाले को विधान भवन में ही
मारपीट करे? क्या हमें सरकार पर रोना चाहिए या विपक्ष पर जो ‘जानकारी का अधिकार (राईट टू इनफार्मेशन)’ क़ानून से बच
निकलने से लेके गुनहगारों के लोकसभा-विधानसभा सदस्यत्व बचाने तक सभी गलत चीजों में
एकजुट है? पाकिस्तान से सख्ती से पेश ना आने के लिए सरकार पर रोये या अपनी सरकार
के दौरान बांगला देशसे कुछ न कह सकनेवाले विपक्ष पर? या फिर रिश्वत लेनेवाले
मंत्रियों और पार्टी अध्यक्षों पर रोये या तरक्की के लिए करोड़ों रुपयों कि रिश्वत
देने पे आमादा रेल बोर्ड सदस्योंपर? और फिर रोने के
लिये, अपनी गाडीके नीचे फूटपाथ पर सोते लोगोंको कुचलनेवाले और एके४७ रायफल जैसे
डरावने और खतरनाक हथियार खरीदनेवाले अभिनेताओंके बीच चुनाव करना भी तो काफी
मुश्किल साबित होगा. औरों की बात तो मैं नहीं जानता साहबजी, पर मुझे तो यह भी
समझमें नहीं आता कि किसपे रोयें- उस नेता पे जो रोज एक करोड़ कमाता है, या उस अभिनेता
पे जो किसी ज्ञानकुम्भ के हर एपिसोड के संचालन का एक-एक करोड़ लेता है. और यह ख़ास करके इसलिये, सर, कि यें दोनों
मेरे उसी देश से है जिसकी करीब आधी आबादी आज भी यकीन के साथ नहीं कह सकती कि
उन्हें रोज दो वक्त पूरा खाना और पीने का शुद्ध पानी नसीब होता रहेगा. किस किस बात
पे और किस किस शख्स पे रोये मेरा देश, सरजी?
माफ़ करना सर! भावनाओं के बहकावे में आने
से एक गलती हो गयी. कुछ समय के लिए मैं यह भूल ही गया कि हमारा देश अब स्वतंत्र
है. वह कोई भी निर्णय करने के लिए सक्षम है. उसे किसी से कुछ पूछने की या किसी से
इजाजत लेने की जरूरत ही नहीं. चाहे तो वह उस बलात्कार पर रोये जो देशके किसी भी
शहर में किसी भी वक्त और किसी भी लड़की के साथ हो सकता है या उस भ्रष्टाचार पे रोये
जो हर गाँव, हर कस्बे में हर घड़ी होता ही रहता है. चाहे रो पड़े उस सरकार पर जो
एक गैर-कानूनी मस्जिद की दीवार गिराने का इल्जाम लगाकर माफियाओंके पीछे पड़े अपने
अफसरको सस्पेंड करे या उस सरकार पर जो पार्टीकी सुपर सरकार के जमाईराजा का कच्चा चिट्ठा खोलनेवाले अफसरको घर भेज दे. उसे अपने मन से चुनाव करने का पूरा पूरा हक़
है. वह क्यों किसी से पूछते फिरे? चाहे जिसपे रोये, चाहे जब रोये और चाहे जितना
रोये. कौन पूछता है?
सरजी, मेरा यह देश पुराने जमाने से
हाथियों के लिए मशहूर है. मैनें बचपन से सुना था कि हाथी के दो तरह के दांत होते
है, एक दिखानेके और एक खानेके. इतने सालों बाद अब कहीं जाके समझ पा रहा हूँ कि
मेरे देश की यह शोहरत किस कारण से है. यहाँ तो गली गली में हाथी ही हाथी है, जिनके
दिखावे के दांत अलग है और खाने के अलग. और दांत ही क्यों, उनकी तो हर चीज़ दोहरी
है- एक दिखावे की और एक इस्तेमाल की. और दिन-ब-दिन इन हाथियों की तादातभी बढ़तीही जा रही
है. एक और जानवर था जो मेरे इस देशमें ही पाया जाता था- गेंडा. अब वह लुप्तप्राय
हो चला है क्योंकी उसकी शिकार बहुत होती है. मैं अपने पागलपन की वजह से समझता था
कि उसकी शिकार उसके सींग के लिए होती है. क्या पता था कि मेरे देश में उसकी खाल की भी बहुत माँग है.
सार्वजनिक जीवन में रहनेवाले हर किसी को गेंडेकी खाल चाहिए. बेचारा गरीब जानवर! समझ नहीं पाया उसके
पास क्या खूबी है और नासमझी का शिकार हो गया.
मैं जानता हूँ सर, आप क्या कहनेवाले है.
अपने सहजसुंदर अभिनयसिद्ध शैलीमें आप कहेंगे, “महानुभाव, उस
वीडियो में, जिसकी बात आप कर रहे है, मैं गढ़वाल की और उसपर टूट पडी आसमानी आफत की
बात कर रहा हूँ. और जहाँ मैंने आसमानी क़हर की बात की तो आपने मुझे सारे
मनुष्यनिर्मित आपत्तियोंका पाठ पढ़ा दिया. समझ क्यों नहीं रहे है आप?” सर, मैं बिलकुल मानता हूँ आपकी बात को. आप गढ़वालकी जिस विपत्ती के बारे में
कह रहे है, वह सामने से पूरी पूरी आसमानी ही दिखाई देती है. लेकिन क्या जो दीख रहा
है वही सच है? क्या आप अपने दिलको साक्षी मानके कह पायेंगे कि यह पूरी तरह से
प्राकृतिक आपत्ती है और इसमें इंसानों का कोई दोष नहीं? क्या इस आपत्ती को हमने
बुलावा नहीं भेजा है? क्या इसे हम टाल नहीं सकते थे? और क्या हम आजभी इससे कुछ सीख
पायें है?
नहीं सर, मैं उस धारी देवी के मंदिरकी
बात नहीं कह रहा हूँ. वह किसीकी श्रद्धा हो सकती है और किसीकी नहीं. आपकी सोचके
दायरोंमें मैं शायद उसे सिद्ध न कर पाऊँ. इसलिये बेहतर यही होगा कि कुछ न कहूँ. लेकिन
यात्रीनिवास (होटल), खानपानगृह (रेस्तराँ), मकान आदि बनाने के लिए कितनी जमीन का गलत
तरीके से इस्तेमाल किया गया यह तो आपभी जानते हैं और मैं भी जानता हूँ. और ‘गलत तरीके’से मेरा मतलब ‘अवैध तरीकोंसे या नियमोंको
ताकपर रखकर’ नहीं है. हमारे देशमें इसे गलत नहीं माना जाता. सर, सारी जिन्दगी
जिन्होंने फिल्मोंके शूटिंगके वक्तको छोड़ कभीभी जमीन न देखी हो, वह भी हमारे देश में
किसान होनेका प्रमाणपत्र ला सकते हैं; आप तो भली भाँती जानते हैं. तो वह नहीं कह रहा
हूँ मैं. गलत तरीकेसे से मेरा मतलब है आजके
फायदेके लिए कल की बली चढ़ाके, परिणामों की तरफ ध्यान दिए बिना. आज आप पैसा बटोर सकते
है, तो बटोर लीजिये, बाद का बाद में देखा जाएगा. ‘बादमें’ तो सिर्फ बाढ़ आ सकती है; और तब देखनेके लिए ना नजारा होता है न वक़्त. पर यह सब
कौन सोचेगा सर! किसी सुधबुध है सोचते बैठने की? नतीजा यह है कि हमारी आसमानी भी सौ
में निन्यानवे बार सुलतानी ही होती है. बस यहीं वजह है कि मैंने आज सुलतानी पर ध्यान
दिया है, आसमानी पर नहीं. क्यों कि यह आफत आसमानी थी ही नहीं. यह तो अपने पैर पे कुल्हाड़ी
मारनीवाली बात थी.
सर, मैंने पहले ही कहा, कि आज रोक नहीं
पाया अपने आपको, इसलिये आपको कुछ उल्टा-सीधा लिख दिया. दर असल आपका वह वीडियो तो
एक कारण मात्र था. मैं ही अपना आपा खो बैठा. मेरी इस धृष्टता से या किसी कथन से अगर
आपको ठेस पहुँची हो या बुरा लगा हो तो मैं माफी तलब करता हूँ. सर, हमारे
महाराष्ट्र के एक कवी है, चंद्रकांत देवताले. हिन्दी में बड़ी अच्छी कविताएँ लिखते
है. उनकी एक कविता मैंने एक बार भारत भवन में पढी थी. लिखते है,
“मैं गलती
करता हूँ और माफी मांगता हूँ.
लेकिन
उसपर मैं फिर गलती करता हूँ और फिर माफी मांगता हूँ.
और
इसके बाद मैं गलती करता हूँ और माफी मांग लेता हूँ.
मुझे
जिन्दगी का और कोई रास्ता नज़र नहीं आता....”
मेरा भी कुछ ऐसाही है सर. इसलिये मै आपसे
भी माफी अर्ज करता हूँ. कृपया मुझे क्षमा करे.
भवदीय,